नागपत्री एक रहस्य-5
रास्ते में बेखौफ घूमते बच्चे अठखेलियां और आपस में हंसी मजाक करती हुई लड़कियां, तो कहीं गाय के पीछे के दौड़ लगाते छोटे-छोटे बच्चे, उस पर भी घर की कच्ची दीवारों पर मोर, चिड़िया, फूल या फिर चरती हुई गाय के चित्र ऊकरते ग्रामीण उनके पास गरीबी तो थी, लेकिन उनके चेहरे खुश नजर आ रहे थे।
उनका परम संतोषी जीवन ऐसा लगता था, जैसे वे प्रभु का आभार जता रहे हो, कि जो दिया हमें वही पर्याप्त है, इतना भी तो किसी को नसीब से मिलता है।
सारा परिदृश्य देख साफ समझ में आता है, कि अब चंदा का गांव ज्यादा दूर नहीं है, वह मन ही मन रास्ते के हर एक पेड़, घर और गांव वालों को बड़े गौर से देखती, और बड़े बुजुर्गों को प्रणाम करती हुई आगे बढ़ रही थी, कितनी अनगिनत यादों को वह छोड़ गई थी।
एक समय में वह जब यह रास्ता पगडंडी हुआ करता था, अपनी छोटी सी साइकिल लेकर शहर तक पढ़ने जाती थी, एकमात्र उन पांच सहेलियों का ही ऐसा समूह था, जिन्होंने कॉलेज की पढ़ाई करने का सौभाग्य पाया, बाकी लड़कियों के जैसे तो यह सिर्फ सपना बनकर ही रह गया था,
जिनमें कुछ के माता-पिता संकोच के कारण पढ़ने भेज ना सके, और कुछ ने अपनी बेटियों की शादी कम उम्र में ही करा दी, तो वही कुछ लड़कियां यह सोचकर आगे ना पढ़ी की शादी के बाद करना ही क्या है,
लेकिन इन सबसे परे चंदा के पिता मास्टर जी एक अलग ही सोच और व्यक्तित्व के धनी थे, उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को बेटों से ज्यादा प्यार और शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया, और पढ़ाई पूर्ण करने के पूरे अवसर समस्त सुख सुविधाओं के साथ उपलब्ध कराए ।
यहां तक कि बारिश के मौसम में कई दफा फसल की चिंता छोड़, उन्होंने खुद चंदा को लेकर शहर तक पढ़ाई के लिए सफर किया , और शायद इसलिए चंदा की कुछ सहेलियों को भी ऐसा मौका प्राप्त हो गया।
चंदा मन ही मन अपनी सहेलियों को याद करती है, और खुश होते जा रही थी, कभी वह बचपन की सहेलियों से मिलने का सोच मुस्कुराती, तो कभी मां से इतने दिन बाद मिलने का सोच,आंखों में आंसू आ जाते हैं।
सच भी तो है, शादी के बाद आज लगभग पांच वर्ष होने में आए, उसने लौटकर गांव देखा ही नहीं, जैसे शहर उसे भा सा गया हो, और यदि अंतर मन की बात कही जाए तो, यह सच था कि चंदा ने आज तक ना तो अपने पति दिनकर जी से की, और ना ही कभी अपनी सास से मां की याद का जिक्र किया।
गांव की सड़कों पर चार चक्का वाहन लोगों के लिए कौतूहल का विषय था, लेकिन गाड़ी के भीतर बैठे तीनों ही प्राणी दिनकर जी, चंदा और सावित्री देवी एक अलग ही दुनिया में खोए हुए थे।
ड्राइवर पुराना और पुश्तैनी था, उसका लगभग इधर आना जाना लगा रहता था, क्योंकि भले ही दिनकर जी के पिता कितने ही व्यस्त क्यों ना रहते हो ,उन्हें जब भी मौका मिलता वह चंदा के माता-पिता से अवश्य मिल आते थे, उन्होंने कभी भी अपने कर्तव्य से मुख न मोड़ा ,
अपनी ही कंपनी की एक बड़ी ब्रांच मैनेजर चंदा के भाई को बना रखा था, तो वहीं उसके प्रदान अकाउंटेंट से चंदा की छोटी बहन की शादी हुई, जिस कारण आज भी चंदा के माता-पिता को एकाकीपन का एहसास नहीं होता, क्योंकि उनका बेटा उन्हीं के साथ रहकर काम करता, तो बेटी बड़े बाबू को लेकर यदा-कदा घूम ही आती।
चंदा ही एकमात्र ऐसी थी, जिसे आने में इतना लंबा समय लगा था, और वह भी कैसे कहां किसी को पता ना चला, सावित्री जी के लिए भी यह गांव उनका मायका था, जहां उन्हें छोड़कर शेष तीनों बहने और दोनों भाई उसी गांव में रहते थे, जिसमें सबसे छोटी बहन की ननद की बेटी चंदा थी।
सावित्री जी की भी अनगिनत यादें इन्हीं गलियों और चौराहों से जुड़ी हुई थी, तभी अचानक एक पुल के पास आकर ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी, जिसके झटके से तीनों को होश आया।
तब दिनकर जी ने देखा कि सामने ही एक विशाल और अनंत फणों वाली नाग प्रतिमा खड़ी हुई है, ड्राइवर कहने लगा, छोटे बाबू यहां ग्राम की सीमा प्रारंभ होती है, लेकिन तब तक सावित्री और चंदा देवी प्रतिमा के समक्ष खड़ी हो दंडवत प्रणाम करने लगी।
ड्राइवर ने बताया छोटे बाबू यहां ग्राम की सीमा प्रारंभ होती है, और गांव में प्रवेश से पहले नाग देवता की अनुमति अनिवार्य है, गांव की यह दोनों बेटियां बड़ी और छोटी बहू इस नियम को जानती है, चलिए हम भी चल कर अनुमति ले ले, कहते हुए वह गाड़ी से नीचे उतरा, लेकिन दिनकर जी को उस समय थोड़ा अजीब लगा।
फिर भी वह अनुसरण करते हुए उनके पीछे उस मंदिर तक आ गए, और मन ही मन सोचने लगा, कि क्या वाकई गांव की सीमाएं भी कभी निर्धारित होती है, भला क्या पृथ्वी के किसी हिस्से को पृथ्वी से विभक्त किया जा सकता है।
क्या सच में किसी गांव की संरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं नाग देवता ले सकते हैं,
असंभव????
आखिर क्यों ????
और क्या वाकई प्रतिमा इतनी जीवंत है, कि यहां से बिना अनुमति लिए गांव में कोई प्रवेश नहीं कर सकता, इतना सोचते हुए दिनकर जी ने अपना सिर ऊपर उठाया, और नाग प्रतिमा को निहारने लगे।
तभी अचानक उन्हें ऐसा लगा जैसे एक विशाल नाग फण उठाएं, उन्हें निहार रहा है, और दोनों की नजरें मिलते ही, दिनकर जी ने डर से आंखें बंद कर ली, और भय उनके जहन में उतरने लगा।
लेकिन तभी अचानक अंतर्मन से उन्हें सौम्य का एहसास हुआ, जैसे उन्हें कोई प्यार से देख रहा हो, उन्होंने आंखें खोल कर देखा तो उन्हें एक मुस्कुराता हुआ चेहरा नजर आया, दिनकर जी ने शर्मसार हो, नतमस्तक हो, उन्हें झुककर प्रणाम किया, और क्षमा याचना कि....
उन्हें अपनी सोच और नास्तिकता पर शर्म आने लगी, क्योंकि ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव उन्होंने जीवन में पहली बार किया था।
सावित्री देवी उनकी मनोदशा को समझ गई, और कहने लगी, बेटा इस मंदिर की स्थापना हमारे पूर्वजों ने ही करवाई थी, स्वयं नाग देवता के आधार पर तुम्हें याद नहीं, लेकिन तुम्हारा प्रथम जन्मदिवस भी यहीं पर मनाया गया था,
तुम्हारे कंधों पर पहले एक सर्प आकृति हुआ करती थी, जो इसी मंदिर में पुजारी जी के सुझाव पर की गई, जो पूजा अर्चना के पश्चात विलुप्त हो गई ,इसलिए सामान्य ना समझना, अब तुम जिस ग्राम में प्रवेश कर रहे हो यहां की माटी का कण कण इसकी सुरक्षा में है।
क्रमशः ....
Babita patel
15-Aug-2023 01:53 PM
Nice
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